धूप की तरह बिखरी हुई सी कभी चांदनी सी पिघली हुई होली के गुलाल सी उड़ती हुई या बादलों सी मस्त, आकाश में पैटर्न बनाती हुई अजीब सी कुछ थी वो... जहां जाती थोड़ा कुछ अपना छोड़ आती कुछ थोड़ा उसका उठा लाती समन्वय थी वो, मिली जुली... जब गई तो, बहुतों का जरा कुछ चला गया उसके साथ कुछ ने बयान किया ऐसे जैसे सबकुछ थी वो कुछ ने सिर्फ खामोश अश्कों से उसे याद किया मगर सबका थोड़ा कुछ चला गया उसके साथ वो सब की थी उसका कौन, किसी को नहीं पता वो अपने साथ सबका कुछ ले गई अपना क्या किसके पास छोड़ा किसी को नहीं पता... अजीब सी थी, पर, क्या थी, क्यूँ थी क्या क्या छोड़ गई और क्या क्या ले गई कौन थी, कैसी थी, क्यूँ थी, सब की थी या किसी की नहीं किसी को नहीं पता धूप की तरह बिखरी हुई सी या चांदनी सी पिघली हुई रंग भरा पैलेट या खाली सफेद कैनवस अधुरी किताब या पूरी पेंटिंग किसी को नहीं पता किसी को कुछ नहीं पता बस ज़रा सी थी बिखरी सी यहां वहां जान...
Painting with words, telling stories, expressing life...