तुम इतने परेशान क्यूँ हो बाबू? आओ हमारे आँगन मॅ ज़रा खंबे से टेक लगा कर बैठो. थोड़ी ठंडी हवा मॅ साँस लो तुलसी वाली चाय बनाती हूँ पियोगे ना? आओ तुम्हारे सर मॅ नारियल का तेल लगा दूँ. आँख बंद करो और दे दो माथे कि लकीरें मुझे कॉंट्रॅक्टर से जो झगड़ा करके आए हो वो भी दे दो एक सफेद चादर बिछा देती हूँ गयी रात घर मॅ हुई नोक झोक, बंद ना होने वाली फोन कि घंटी, दफ़्तर मॅ पड़े काग़ज़ के ढेर, बहन के रिश्ता कि जाँच, वो बरामदे का फ्यूज़ बल्ब, गाड़ी का डेँट, घर का पैंट, वो नया काम, मकान मालिक का नोटीस, और बाकी सब डाल दो इस सफेद चादर मॅ बाँध दो सब एक साथ अपनी सारी परेशानियाँ एक पोटली मॅ और छोड़ दो मेरे आँगन मॅ सारा बोझ उतार कर हल्का महसूस करोगे शायद वो मुस्कुराहट अपना रास्ता वापस ढूढ़ ले शायद चाल मॅ वो तेज़ी लौट आए झुके हुए कंधे उठ जाए और चेहरे कि चमक उजागर हो जाए शायद तुम अपने आप से दोस्ती कर लो, ये पोटली यहीं छोड़ दो मेरे पास, खुद से खुद को आज़ाद कर लो और इतने परेशान मत हो बाबू. शुभ्रा, May 23, 2008
Painting with words, telling stories, expressing life...