लफ्ज़ अपनी मंज़िल ढूढ़ लेते हैं,
ज़ज़्बात नज़मों तक पहुँचते हैं,
कुछ पन्नो पर उतरेते हैं,
कुछ सिर्फ़ दिल मैं ही जीते हैं,
ख़ुशी और ग़म से ही जुड़े रहते हैं|
अब वक़्त है अल्फाज़ों के जुदा होने का,
खुद से, तुम से, मुझसे से,
हमारी मोहब्बत से,
अब वक़्त है आज़ाद होने का|
मसले भी है, और ज़रूरत भी;
एक आवाज़ की, एक सोच की|
एक उमीद भी है,
कि मेरे लफ़्ज़ों को कहीं और पनाह मिले
और तुम्हे कहीं और|
(C) shubhra, February 19, 2010
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