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Showing posts from 2014

Our Poems... (Part 2)

Your poems were for me mine for everyone but you... You looked at me, for me I looked at everyone and for everyone but you... You loved me but left... I left you but still loved... You scarred your body in search of me I scarred my soul in spite of you. You moved on and turned into a family man a lovely husband and a great father. I moved on and turned into a bohemian artist. a single woman and a great catch Our lives carried on Our paths seldom crossed Crossed if they did only to move on again... Until one warm and humid August Morning... The destiny intermingled again The line connected and so did the hearts... Now my poems are for you but you are for others I look for you but you have to look at others My love is for you and yours is divided... My soul is still scarred looking for a balm Your body is still scarred looking for the cure We seem to be the pieces of a puzzle waiting to ...

Our Poems...

My poems were for you Yours for everyone but me... I looked at you, for you You looked at everyone and for everyone but me... I loved you but left... You left me but still loved... I scarred my body in search of you You scarred your soul in spite of me. I moved on and turned into a family man A loving husband and a  great father. You moved on and turned into a bohemian artist... A single woman and a great catch! Our lives carried on Our paths seldom crossed Crossed if they did only to move on again... Until one warm and humid August morning... The destiny intermingled again The line connected and so did the hearts... Now your poems are for me but I am for others You look for me but I have to look at others Your love is for me and mine is divided... Your...

एक लड़की शहर में... (2)

आज पूरी सुबह उसने स्टोर में बिताई...  बक्से में से गरम कपड़े निकाले  और छत पे डाल उनमे धूप लगाई...  लाल पीले, हारे, गुलाबी हर रंग के स्वेटर बिखरे हुए थे...  पर उसका ध्यान सिर्फ़ ऊनी जॅकेट और कोट  पर था...  हर एक की जेब टटोल के ढूँढ रही थी  शायद कुछ रुपय मिल जाए पिछले साल के...  फिर नीले कोट में से एक काग़ज़ मिला...  इंक पेन से सुंदर लिखावट में लिखा था...  'पटेल चौक मेट्रो स्टेशन- 2.30 बजे, इंतिज़ार करूँगा...' उसने कलाई पे बँधी घड़ी को देखा... दिन के 'ढाई' (2.30) बजे थे... (c) shubhra, 13th November, 2013

एक लड़की शहर में... (1)

कलफ़ लगी हुई सूती सारी का पल्ला (जो की रात तक मुस चुका था), उसने कमर में खोसा हुआ था... आज वो ज़्यादा थॅकी हुई थी पर नींद गायब थी... नवेंबर की सर्दी में बाहर छत पे खड़ी हुई वो चाँद को ताक रही थी और काँप भी रही थी...   गुज़रे दिन को याद करते हुए सोच रही थी... क्या वो भी इस समय जागा हुआ चाँद को देख रहा होगा? (c) Shubhra, 12th November, 2013 12/11/13

कल तुम्हारे साथ थी...

कल तुम्हारे साथ थी तुम्हारे सोए हुए बिस्तर की सिलवटों में तो कभी तुम्हारी किताबों के बीच, तुम्हारे चौके में  बर्तनो के साथ    तो कभी दरवाज़ए की चौकठ पे; बगीचे में घास पे पड़ी ओस में और आम के पेड़ पे चहकती चिड़ियों के साथ, बाहर सड़क पे कंकर के बीच और तुम्हारी गाड़ी की सामने वाली सीट पे भी; कल तुम्हारे साथ थी तुम्हारी अलमारी घड़ी कपड़े रूमाल जूते सब के आस पास मंडराती रही; कल तुम्हारे साथ थी चाय बनाते अख़बार पढ़ते दौड़ते नहाते खाते और सोते हुए भी... करीब से देखा कल तुम्हे कल तुम्हारे साथ थी सुना है नौ बजे के करीब खुद से जुदा हुई थी तो क्या उसी समय तुमसे मिली? यकीन तो नहीं मगर लगता ज़रूर है  कि... कल रात तुम्हारे साथ थी...   (c) shubhra, 6th January 2014